चंद्र ग्रहण (Chandra Grahan) केवल आकाशीय घटना नहीं है, बल्कि इसे धर्म और ज्योतिष दोनों दृष्टियों से गहन महत्व प्राप्त है. भारतीय परंपरा में ग्रहणकाल को अशुभ समय माना गया है.
इस दौरान किए गए कर्मों का प्रभाव सामान्य दिनों से अलग माना जाता है. विशेषकर दांपत्य संबंध या शारीरिक मेल को शास्त्रों ने वर्जित बताया है. आइए जानें इसके पीछे शास्त्रीय और स्वास्थ्य दोनों ही कारण क्या हैं.
धर्मशास्त्रों और पुराणों में ग्रहणकाल को सूतक यानी अशुद्धि का समय कहा गया है. मनुस्मृति में उल्लेख है कि ग्रहण के समय भोजन, स्नान और मैथुन नहीं करना चाहिए.
गरुड़ पुराण में भी कहा गया है कि इस समय की गई दांपत्य क्रिया से उत्पन्न संतान को शारीरिक और मानसिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है.
ज्योतिषीय दृष्टि से इस समय राहु-केतु का प्रभाव प्रबल होता है. चंद्रमा असंतुलित हो जाता है, और यह गर्भाधान के लिए प्रतिकूल माना गया है. ऋषि-मुनियों ने इसे केवल निषेध के रूप में नहीं बताया, बल्कि इसके पीछे सामाजिक और पारिवारिक संतुलन का संदेश छिपा है.
स्वास्थ्य और वैज्ञानिक कारण
ग्रहणकाल में धार्मिक कारणों के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टि भी छिपी हुई है. माना जाता है कि इस समय वातावरण में विकिरण और नकारात्मक तरंगें सक्रिय होती हैं.
हार्मोनल असंतुलन की संभावना रहती है, जिससे शरीर का सामंजस्य बिगड़ सकता है. गर्भवती महिलाओं के लिए तो यह समय और भी संवेदनशील है.
कई चिकित्सक मानते हैं कि इस दौरान मानसिक और शारीरिक दबाव का असर गर्भस्थ शिशु पर पड़ सकता है. इसलिए स्वास्थ्य के नजरिए से भी इस समय दांपत्य संबंध उपयुक्त नहीं माने गए हैं.
परंपरा और अनुशासन
भारतीय संस्कृति में संयम और शुद्धता को सर्वोच्च महत्व दिया गया है. ग्रहणकाल में धार्मिक ग्रंथों ने मंत्रजप, ध्यान और ईश्वर-आराधना को श्रेष्ठ बताया है.
इस समय मूर्तियों और पवित्र वस्तुओं को स्पर्श करने से भी परहेज करने की परंपरा रही है. ग्रहण समाप्त होने पर स्नान, दान और शुद्ध आहार लेने का विधान है. इस अनुशासन का उद्देश्य लोगों को केवल धार्मिक भय में डालना नहीं, बल्कि उन्हें शारीरिक और मानसिक संतुलन की ओर ले जाना है.
चंद्र ग्रहण के दौरान दांपत्य संबंध बनाना शास्त्रों और स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टियों से अनुचित माना गया है. इस काल में किए गए ऐसे कार्य अशुभ फलदायक माने जाते हैं. यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने इसे वर्जित कर ध्यान, जप और दान को प्राथमिकता दी.
ग्रहणकाल आत्मसंयम, साधना और आत्मशुद्धि का समय है. विवेकपूर्ण आचरण यही है कि इस अवधि में दांपत्य संबंध से परहेज किया जाए और इसके स्थान पर आध्यात्मिक साधना को अपनाया जाए.
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