कांग्रेस अपनी खोई भी सियासी जमीन को दोबारा से पाने के लिए बेताब है. कांग्रेस देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘जय बापू, जय भीम और जय संविधान’ नाम से जनसभाएं कर रही है. कांग्रेस सीलमपुर से इस अभियान का आगाज किया था और दूसरी रैली कर्नाटक के बेलगामी में किया और अब तीसरी रैली 28 जनवरी को डॉ भीमराव आंबेडकर के जन्म स्थली महू में करेगी. कांग्रेस जनसभा के जरिए दलित समाज के दिल को जीतना चाहती है, जिसके लिए बसपा की सियासी नक्शेकदम पर चलती नजर आ रही.
आजादी के बाद से कांग्रेस का दलित कोर वोटबैंक हुआ करता था, लेकिन अस्सी के दशक में बसपा के सियासी उदय के बाद से दलित समाज उत्तर भारत के राज्यों से पूरी तरह छिटक गया है. दलितों का एक बड़ा तबका बीजेपी के साथ जुड़ गया है. 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस दलित वोटों में सेंधमारी करती नजर आई है, जिसके बाद ही कांग्रेस ही दलित समाज के विश्वास को हासिल करने के लिए खुलकर जमीन पर उतरने की स्टैटेजी बनाई है. इसी के तहत कांग्रेस ने जय बापू, जय भीम और जय संविधान नाम से अभियान चलाने का ऐलान किया.
दलित समाज के राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगाने के लिए अस्सी के दशक में बसपा का गठन किया था. बसपा की क्या पहचान, नीला झंडा और हाथी निशान… यह नारा दलित गांव में गूंजने लगा था. दलित समाज के बीच बसपा की यही पहचान थी, लेकिन बदले हुए दौर में मायावती से दूर हुआ है. बसपा की स्टाइल में ही कांग्रेस ने दलित समाज के विश्वास को जीतने की कवायद में है, जिसके लिएराहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं के गले में नीला अंगवस्त्र पड़ा दिखा दे रहा है.
कांग्रेस ने आंबेडकर को लेकर बनाया प्लान
बसपा की तरह ही कांग्रेस के मंच पर भी डॉ. आंबेडकर की तस्वीर लगी नजर आती है. इतना ही नहीं कांग्रेसी नेता भी खुलकर जय भीम के नारे हर एक छोटी और बड़ी सभा में लगा रहे हैं. ‘जय भीम’ बसपा का वैचारिक और नैतिक संबोधन है, लेकिन कांग्रेस ने अब अपने राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा बना लिया है. डॉ. आंबेडकर पर अमित शाह के द्वारा किए गए टिप्पणी के बाद राहुल गांधी से प्रियंका गांधी तक ने बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. कांग्रेसी नेता इतने आक्रमक रही, उस तेवर में बसपा और मायावती भी नहीं दिखीं.
बाबा साहेब के नाम से दुनियाभर में मशहूर डॉ. भीमराव आंबेडकर भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के भी केंद्र बन चुके हैं. दलित और शोषित-पीड़ित समाज डॉ. आंबेडकर को अपना मसीहा मानता है. यही वजह है कि आंबेडकर अपने जीवन में जिस सियासी दल और विचाराधारा के खिलाफ खड़े थे, वो भी आज उन्हें अपनाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही. इसीलिए कांग्रेस ने भी गांधी के साथ आंबेडकर को लेकर चलने का प्लान बनाया है. आंबेडकर के बहाने उस बड़े वोटबैंक को साधने की है, जो बाबा साहेब को सियासी और समाजिक मसीहा मानते हैं.
देश के दलितों को लुभा रही कांग्रेस
कांग्रेस देशभर में अनुसूचित जाति वर्ग पर नजर जमाए जय बापू, जय भीम, जय संविधान अभियान चला रही है. कांग्रेस इसी आस से चला रही है कि जैसे लोकसभा चुनाव में उसने विपक्षी दलों के साथ मिलकर बीजेपी को दलित वर्ग के बीच आंबेडकर, आरक्षण और संविधान विरोधी प्रचारित करने में कामयाब रही, उसी तरह देशभर में दलितों को अपने साथ लामबंद या जा सकता है. कांग्रेस के इस प्रयोग की आंशिक सफलता 2024 हासिल कर चुकी हैं,जिसे लेकर अब देशभर में करने की स्टैटेजी मानी जा रही.
कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि बसपा के कमजोर होने के बाद फिलहाल दलित वोटर कहीं स्थाई तौर पर नहीं जुड़ा है. कांग्रेस को लगता है कि लोकसभा चुनाव की तरह ही अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर अपनी ओर खींचा जा सकता है. देश में जय बापू, जय भीम, जय संविधान अभियान चला रही है. 27 जनवरी को आंबेडकर की जन्मस्थली महू में भी यह कार्यक्रम होने जा रहा है, जिसमें दलित वर्ग से आने वाले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सहित नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा समेत अन्य दिग्गजों का शामिल होंगे.
कांग्रेस नेता मानते हैं कि बसपा इसलिए कांग्रेस पर ज्यादा हमलावर है, क्योंकि मायावती को लगता है कि दलित वर्ग का वोट सपा के साथ तो कुछ नेताओं के सहारे गया है, लेकिन दलित सपा के साथ सहज नहीं है. बीजेरी के अलावा कांग्रेस ही दलित समाज के लिए एक विकल्प बन सकती है. इसीलिए वो दलित और अतिपिछड़ों के वोटबैंक को साधने की रणनीति है.
देश में दलित सियासत की ताकत
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलितों की आबादी करीब 17 फीसदी है, जो कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. देश की कुल 543 लोकसभा सीट हैं. इनमें से 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन उनका सियासी प्रभाव 150 से ज्यादा सीटों पर है.
सीएसडीएस के आंकड़े के लिहाज से दलित बहुल लोकसभा सीटों का वोटिंग पैटर्न देखें तो बीजेपी को 2024 में 31 फीसदी दलित वोट मिला. जबकि 2019 में यह आंकड़ा 34 फीसदी का था. बीजेपी 3 फीसदी कम वोट मिले और सहयोगी दलों को भी 2 फीसदी वोट मिले थे. कांग्रेस को इस बार 19 फीसदी दलित समाज ने वोट दिया है. कांग्रेस के सहयोगी को दलित वोटों का जबरदस्त फायदा मिला था, जिसमें खासकर सपा को. इसके चलते ही बीजेपी की सीटें घट गई हैं.
2024 में दलित बहुल 156 सीटों के नतीजे देखें तो विपक्षी गठबंधन ने 93 और एनडीए ने 57 सीटें जीतीं. दलित वोट वाली 156 सीटों में इस बार 2019 के मुकाबले विपक्ष को 53 सीटों का फायदा हुआ और एनडीए को 34 सीट का नुकसान. इससे पहले 2014 और 2019 में दलितों का एकमुश्त वोट बीजेपी को मिला था,जिसके चलते पीएम मोदी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रहे. इस तरह देश के दलितों के बीच कांग्रेस अपनी पैठ जमाने की कोशिश में है, जिसके लिए पूरी तरह से बसपा की स्टाइल की राजनीति करती नजर आ रही है.