लखनऊ- 21 फरबरी 2025- भारत सरकार द्वारा पेश किए गये प्रस्तावित अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक- 2025 ने कानूनी समुदाय के भीतर विरोध की आग को भड़का दिया है। इस कानून को अधिवक्ताओं की स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर सीधा हमला माना जा रहा है: उन अधिवक्ताओं के खिलाफ जो ऐतिहासिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य जैसे तानाशाह विरोधियों के खिलाफ भी न्याय के कट्टर रक्षक के रूप में खड़े रहे हैं।
विवाद का एक प्रमुख बिन्दु वह प्रावधान है जो केंद्र सरकार को बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) में अधिकतम तीन सदस्यों को नामित करने की अनुमति देता है। इस कदम को बीसीआई की स्व-नियामक प्रकृति को कमजोर करने और इसे सरकार द्वारा नियंत्रित इकाई में बदलने के एक ज़बरदस्त प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। बीसीआई ने इस संबन्ध में गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि ऐसे प्रावधान स्वायत्त बार की अवधारणा को “ध्वस्त” करते हैं।
प्रस्तावित विधेयक में विदेशी कानूनी फर्मों और वकीलों को विनियमित करने का अधिकार बीसीआई से केंद्र सरकार को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव है। यह परिवर्तन स्थापित ढाँचों और न्यायिक मिसालों, विशेष रूप से ए.के. बालाजी निर्णय, जिसने विदेशी कानूनी संस्थाओं पर बीसीआई के विनियामक क्षेत्राधिकार की पुष्टि की, को भी नकारता है। बीसीआई का तर्क है कि यह कदम न केवल उसके अधिकार को कमजोर करता है, बल्कि भारतीय कानूनी पेशेवरों के हितों को भी खतरे में डालता है।
इसका एक और चिंताजनक पहलू अधिवक्ताओं द्वारा हड़ताल और बहिष्कार को ‘अपराधीकरण’ घोषित करना है, जिसे अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 के तहत कदाचार के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे प्रावधान कानून के पेशेवरों के विरोध करने के मौलिक अधिकारों को खतरे में डालते हैं और पेशे के भीतर असहमति को दबा सकते हैं। बीसीआई ने इस कदम की आलोचना की है। इस बात पर जोर देते हुए कि मौजूदा कानून पहले से ही न्यायालयों को अधिवक्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन किये बिना व्यवधानों का संज्ञान लेने का अधिकार देते हैं।
अतएव इस पर कानूनी बिरादरी की प्रतिक्रिया मजबूत और तीखी रही है। उनमें गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि केन्द्र सरकार अधिवक्ताओं, चिकित्सकों एवं अन्य पेशेवरों की सुरक्षा संबंधी मांग को लंबे समय से नकारती चली आ रही है और अब उन पर यह फासीवादी कानून लादने जा रही है।
अतएव दिल्ली के जिला न्यायालयों में वकीलों ने हड़ताल शुरू कर दी है, और अब यह देशव्यापी विरोध में तब्दील होता जा रहा है। बीसीआई ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि यदि विवादास्पद प्रावधानों में संशोधन नहीं किया गया अथवा उन्हें हटाया नहीं गया, तो आंदोलन के और व्यापक होने की संभावना है। यह अब स्पष्ट तौर पर दिखाई देने लगा है।
यहां हम यह भी बताना चाहेंगे कि भारत में अधिवक्ताओं के पास स्वतंत्रता और लचीलेपन की एक लंबी विरासत है। औपनिवेशिक शासन के दौरान भी, ब्रिटिश साम्राज्य कानूनी पेशे को अपने अधीन नहीं कर सका। इस प्रस्तावित कानून को उस विरासत का अपमान माना जा रहा है। क्योंकि वर्तमान सरकार वह सब करने का षडयंत्र कर रही है जो कि उपनिवेशवादी शक्तियां भी नहीं कर सकीं- अर्थात स्वतंत्र बार को अपने अधीन करना।
अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक, 2025, अपने वर्तमान स्वरूप में, भारत में कानूनी पेशे की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा है। इन चिंताओं को दूर करने के लिए सरकार को हितधारकों, विशेष रूप से बीसीआई के साथ सार्थक बातचीत करनी चाहिये। ऐसा न करने से न केवल कानूनी पेशेवरों की स्वायत्तता खतरे में पड़ेगी, बल्कि देश में न्याय और लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को भी भारी नुकसान पहुंचेगा। अतएव अधिवक्ताओं की लोकतान्त्रिक मांगों को हम न केवल समर्थन करते हैं अपितु पूरी दृढ़ता से उनके साथ खड़े हैं, डा. गिरीश ने कहा है।